त्रिकाण्डात्मक श्रुति गीता विश्व का दार्शनिक धरोहर है जिसे युगों पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन के मोह व द्वन्द्व निवारणार्थ सर्वप्रथम निरूपित किया था। महाराष्ट्र में तेरहवीं ईसवी में जन्मे सन्त ज्ञानेश्वर देश के विख्यात एव तपःसम्पन्न सन्तों में अन्नय स्थान रखते हैं। युवावस्था में ही सन्यास मार्ग ग्रहण कर उन्होंने संसार को अपने ज्ञानलोक और तपश्चर्या की सिद्धियों से प्रकाशित का जनसाधारण में सनातन धर्म की पुनप्र्रतिष्ठा में भागीरथ प्रयास किया। उनकी ‘ज्ञानेश्वरी’ एक अलौकिक ग्रन्थ है, जिसके अन्तर्गत उनका ‘पसायदान’ उनके आध्यात्मिक अध्यवसाय के समापन पर काढ़ा हुआ दिव्य प्रसाद मानवमात्र के कल्याणार्थ प्रकट हुआ है। ज्ञानेश्वरी एक प्रतिभासम्पन्न काव्य है। यह अपमा, भाषा सौन्दर्य, तत्वज्ञान, साक्षात्कार, भक्ति और अद्वैत का अन्योन्याश्रित संगम है। असामान्य निरीक्षण शक्ति, अप्रतिहत कवित्वशैली, अलौकिक वाङमय माधुर्य जैसे गुणों से युक्त यह ग्रन्थ सचमुच अद्वितय है। भगवान का कृपाप्रसाद और निसर्ग का चमत्कार इनका संगम है। “योग प्रदीपिका” के नाम से प्रकाशित सन्त ज्ञानेश्वर का यह ग्रन्थ मूल भगवद् गीता ग्रन्थ पर सन्त ज्ञानेश्वर की दृष्टि है। ज्ञानेश्वर ने गीता जैसे सेस्कृत ग्रन्थ पर देशी अलंकार चढ़ाए है। ज्ञानेश्वर जब गीता का अर्थ विशद करके बताते है तब उनकी तेजोमय दृष्टि श्रोताओं को भी तेजोमय बनाती है। ज्ञानेश्वर विश्व की चिन्ता करने वाले महामानव थे। “विश्व ही मेरा घर” (हे विश्वचि माझे कर) जैसी विश्वमय दृष्टि उनकी विराटता को स्पष्ट करती है। सन्त ज्ञानेश्वर जी का यह दिव्य पसायदान भारत तथा विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हुआ है, जिनमें प्रमुख है हिन्दी, कन्नड़, बांग्ला, फ्रेंच, स्पैनिश, जर्मन इत्यादि। विश्वास है कि “योग प्रदीपिका” के माध्यम से ज्ञानेश्वरी का लाभ हिन्दी पाठकों को मिलेगा। ज्ञानेदेव का सर्वांगीण शिक्षण उनके जीवन व चरित्र से उद्भासित होता है। ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ साहित्य की दृष्टि से अनुपम है तथा सिद्धान्त की दृष्टि से भी अनोखा है। साथ ही, इस योग प्रदीपिका की रचना में अनेक अमूल्य व प्राच्य ग्रन्धों का उपयोग किया गया है।
Sub Title | No |
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Author | Prof. Sadanand Gadgil |
About Author | No |
Content | विषय सूची प्रस्तावना पग ज्ञानदेव जी की अलौकिक विश्वात्मक प्रार्थना गअ 1 अर्जुन विषादयोग 1 2 सांख्ययोग 21 3 कर्मयोग 50 4 ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 70 5 कर्म संन्यासयोग 90 6 आत्मसंयम योग 104 7 ज्ञान विज्ञान योग 135 8 अक्षरब्रह्म योग 151 9 राजविद्या राजगुह्य योग 168 10 विभूति योग 205 11 विश्वरूपदर्शन योग 215 12 भक्तियोग 228 13 क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग 233 14 गुणत्रय विभाग योग 239 15 पुरुषोत्तम योग 262 16 दैवासुरसेपद्विभाग योग 293 17 श्रद्धात्रय विभागयोग 324 18 मोक्षसन्न्यास योग 348 परिशिष्ट 1 438 परिशिष्ट 2 439 अनुक्रमणिका 449 |
ISBN 10 Digit | No |
ISBN 13 Digit | 9788187471950 |
Pages | No |
Binding | Hardcover |
Year of Publication | No |
Edition of Book | No |
Language | Hindi |
Illustrations | No |
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